हम आमतौर पर यह समझने के लिए पर्याप्त समझदार नहीं हैं कि वर्तमान में हम जिस कर्मफल की इच्छा रखते हैं, वह आगे चलकर हमारे लिए अच्छा होगा या नहीं। जैसा कि एक असफल रिश्ते में होता है, एक समय में एक युगल एक साथ रहना चाहता है लेकिन कुछ समय बाद वे अलग होना चाहते हैं।

आज हमें जो बहुत पछतावा है वे उस कर्मफल के मिलने के कारण है जिसकी हमने तीव्र इच्छा की थी और जो समय के साथ विनाशकारी साबित हुए। सामान्य अनुभव के अनुसार, ऐसा भी होते दिखता है की हमारे साथ जो सबसे अच्छी बात हुई, वह यह थी कि अतीत में किसी समय उनके द्वारा इच्छित कर्मफल उनको प्राप्त नहीं हुआ।

समय की अवधि में एकत्रित जीवन के ये अनुभव हमें गीता में प्रतिष्ठित श्लोक 2.47 को समझने में मदद करेंगे, जहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कर्म करने का अधिकार है लेकिन कर्मफल पर कोई अधिकार नहीं है।

इन अनुभवों का उपयोग इस श्लोक को द्वंद् के माध्यम से देखने के लिए किया जा सकता है। दुनिया द्वंद् है और हर चीज उसके विपरीत अवस्था में भी मौजूद है। यही बात कर्मफल पर भी लागू होती है।

शुरू में दिए गए जोड़े के उदाहरण में, एक खुशी ध्रुवीयता (सुख/जीत/लाभ) ध्रुवीयता समय के साथ दर्द (दुख/पराजय/हानि) ध्रुवीयता में बदल गई।

संपूर्ण गीता में श्रीकृष्ण का जोर इन चिरस्थायी ध्रुवों के बारे में जागरूक होकर उन्हें पार करने पर है। कर्मफल की इच्छा ऐसी ही एक ध्रुवता है जिसे स्वयं को इससे न जोडक़र पार किया जाना चाहिए।

सृष्टिकर्ता (चेतना, चैतन्य, रचनात्मकता) को इस ब्रह्मांड को 13.5 अरब से अधिक वर्षों से चलाने का अनुभव है। जब हमारे कर्मफल की बात आती है तो वे कैसे गलती कर सकते है? निश्चित रूप से, वह नहीं करेंगे। हमें वह मिलता है जिसकी हमें आवश्यकता होती है या जिसके हम हकदार होते हैं, लेकिन वह नहीं जो हम चाहते हैं।


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