श्हमारे अंतरिक और बाहरी हिस्सों का मिलन ही योग है। इसे कर्म, भक्ति, सांख्य, बुद्धि जैसे कई मार्गों से प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति के आधार पर उसके अनुकूल मार्गों से योग प्राप्त कर सकता है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि एवं असिद्धि में समान बुद्धि वाला और योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्म कर। इससे पहले, श्रीकृष्ण ने कहा कि कर्मयोग में, बुद्धि सुसंगत है और जो अडिग हैं, उनकी बुद्धि बहुत भेदों वाली होती है।

एक बार जब बुद्धि सुसंगत हो जाती है, जैसे एक आतशी शीशा (मैग्नीफाइंग ग्लास) प्रकाश को ऐक ही स्थान पर फोकस करता है, तो वह किसी भी बौद्धिक यात्रा में सक्षम होता है। कोई भी बैधिक यात्रा करने में सक्षम हो जाती है। कोई भी यात्रा, चाहे वह स्वयं को जानने के लिए ही क्यों न हो, उसे दिशा और गति की जरूरत होती है। श्रीकृष्ण का यहाँ बुद्धि योग का संदर्भ अन्तरात्मा की ओर यात्रा की दिशा के बारे में है।

आमतौर पर, हम भौतिक दुनिया में इच्छाओं को पूरा करने के लिए सुसंगत बुद्धि का उपयोग करते हैं, लेकिन हमें इसका उपयोग अपनी यात्रा को स्वयं की ओर आगे बढ़ाने के लिए करना चाहिए।

आंतरिक यात्रा के लिए स्थिर बुद्धि का उपयोग करने का पहला कदम है कि हम प्रशन करना शुरू करें। ये प्रशन अपने गहरे जुड़ाव, भावनाओं, धारणाओं, विचारों, कार्यों और यहां तक कि हमारे द्वारा बोले गए शब्दों जैसी हर चीज पर होने चाहिएं। जिस तरह ज्ञान की सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए विज्ञान प्रश्न पूछने का उपयोग करता है, ऐसी पूछताछ परम सत्य को उजागर करने के लिए उपयोगी है।

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि दुखी वे हैं जिनका उद्देश्य कर्मफल प्राप्त करना है। हम इस आदत को विकसित करते हैं क्योंकि कर्मफल के द्वारा सुख की कामना करते हैं। लेकिन एक ध्रुवीय दुनिया में, समय के साथ हर सुख जल्द ही दुख में बदल जाता है, जो हमारे जीवन को नरक बनाता है।

श्रीकृष्ण हमें ध्रुवों से बचाने का वादा नहीं करते हैं, लेकिन हमें बुद्धि के उपयोग के द्वारा इनको पार कर आत्मवान बनने के लिए कहते हैं। यह न तो ’जानना’ है और न ही ’करना’, बस ’होना’ है।


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