कर्ण और अर्जुन कुंती से पैदा हुए थे लेकिन अंत में विपरीत पक्षों के लिए लड़े। अर्जुन के साथ महत्वपूर्ण लड़ाई के दौरान शाप के कारण कर्ण का युद्ध ज्ञान और अनुभव उसके बचाव में नहीं आया। वह युद्ध हार गया और मारा गया।

यह स्थिति हम सभी पर लागू होती है क्योंकि हम कर्ण की तरह हैं। हम अपने जीवन में बहुत कुछ सीखते हैं, ज्ञान और अनुभव प्राप्त करते हैं लेकिन महत्वपूर्ण क्षणों में हम जागरूकता के बजाय अपनी प्रवृत्ति के आधार पर सोचते और कार्य करते हैं, क्योंकि हमारी जागरूकता की गहराई आवश्यक सीमा से कम है।

श्रीकृष्ण इस बात से पूरी तरह अवगत हैं और गीता में विभिन्न कोणों से वास्तविकता और सत्य की बार-बार व्याख्या करते हैं, ताकि जागरूकता गहराई तक जाए और आवश्यक सीमा को पार कर जाए।

गीता इस बात पर जोर देती है कि हमारे दो हिस्से हैं - एक आतंरिक और दूसरा बाहरी, जो एक नदी के दो किनारे की तरह है। आमतौर पर हम बहरी हिस्से से पहचान करते है, जिसमें भौतिक शरीर, हमारी भावनाएं, विचार और अपने आसपास की दुनिया शामिल होती है।

श्रीकृष्ण हमें सत्य का एहसास करने और हमारे आंतरिक व्यक्तित्व के साथ पहचान करने के लिए कहते हैं, जो सभी प्राणियों में व्याप्त, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है।

आत्मज्ञानी आंतरिक व्यक्तित्व यानी दूसरे किनारे पर पहुंचकर यह निष्कर्ष निकालता है कि केवल एक किनारा है और दूसरा किनारा रस्सी-साँप सादृश्य में मायावी साँप की तरह है।

जागरूकता के साधनों में शामिल हैं: ध्रुवों को पार करना (द्वंद्वातीत); गुणातीत, समत्व, कर्ता की जगह साक्षी होना; और कर्म से कर्मफल की स्वतंत्रता।

100 पुस्तकों को पढऩे के बजाय गीता, विशेषकर अध्याय 2, को कई बार पढऩा बेहतर है, क्योंकि गीता का प्रत्येक पठन हमारे अंदर एक अलग स्वाद और बेहतर अहसास लाता है, स्वयं के बारे में जागरूकता लाता है और आनंद को बहने देता है।


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