एक बार कुछ दोस्त यात्रा कर रहे थे और उन्हें एक चौड़ी नदी पार करनी थी। उन्होंने एक नाव बनाई और नदी को पार किया। फिर उन्होंने अपनी बाकी यात्रा के लिए भारी नाव को ढोकर अपने साथ ले जाने का फैसला किया, यह सोचकर कि यह उपयोगी होगा।

इसके चलते उनका सफर धीमा और तकलीफ दायक हो गया। यहां नदी दर्द की ध्रुवता है और नाव दर्द को दूर करने का एक साधन है।

इसी तरह, हमें अपने दैनिक जीवन में सामना करने वाली कई दर्द ध्रुवों से राहत देने के लिए कई यंत्र और अनुष्ठान हैं। वेद (ज्ञान) अस्थायी दर्द ध्रुवों से राहत देने के लिए कई अनुष्ठानों का वर्णन करते हैं और इनमें से कई अनुष्ठान उपलब्ध हैं और आज तक किए जा रहे हैं। जब हम स्वास्थ्य, व्यवसाय, कार्य और परिवार के क्षेत्रों में कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो इन अनुष्ठानों की ओर मुडऩा तर्कसंगत प्रतीत होता है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं (2.42-2.46) वेदों का बाहरी अर्थ बताकर इस जीवन और परलोक (स्वर्ग) दोनों में सुख का वादा करने वाले मूर्खों के शब्दों में नहीं फँसना चाहिए। वह उसे द्वंद्वातीत और गुणातीत होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि वह आत्मवान बन जाए। जब बड़ा सरोवर मिल जाता है तो उसे छोटे तालाब की जरूरत नहीं होती और इसी तरह आत्मवान के लिए वेद उस छोटे तालाब के समान हैं (2.46)।

जिस प्रकार हमारी आगे की यात्रा में नाव के बोझ को खुद पर न लेने का ज्ञान निहित है, उसी तरह श्रीकृष्ण सुख और शक्ति प्राप्त करने के प्रयासों की निरर्थकता को समझकर वेदों को पार करने का संकेत देते हैं।

गीता के आरंभ में ही, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि (2.14) इन्द्रियां सुख-दुख जैसे ध्रुवों को पैदा करती हैं और उनको सहन करने के लिए कहते हैं क्योंकि वे नश्वर हैं।

इन्हें पार करने और इन क्षणिकाओं को द्रष्टा बनकर देखने पर उनका जोर है। श्रीकृष्ण सुख के कृत्रिम रचना के बजाय प्रामाणिक आनंद के पक्ष में हैं।


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