कृष्ण कहते हैं (2.29) कुछ इस (आत्मा) को चमत्कार के रूप में देखते हैं, कुछ इसे चमत्कार बताते हैं, अन्य लोग इसे चमत्कार के रूप में सुनते हैं, इस के बावजूद ‘कोई भी’ इसे बिल्कुल नहीं’ जानता।

यहां 'कोई भी' से तात्पर्य उससे है जो आत्मा को समझने के लिए अपनी इंद्रियों का उपयोग कर रहा है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि जब तक इन दोनों के बीच दूरी है, तब तक प्रेक्षक आत्मा को नहीं समझ सकता है।

एक बार एक नमक की गुड़िया समुद्र का पता लगाना चाहती थी।उसने अपनी यात्रा शुरू की। हिंसक लहरों के माध्यम से होती हुई वह समुद्र के गहराई में प्रवेश करती है और धीरे-धीरे उसमें घुलने लगती है। जब तक यह सबसे गहरे भाग में पहुंचती है, यह पूरी तरह से पिघल कर समुद्र का हिस्सा बन जाती है।

कहा जा सकता है कि वह स्वयं समुंद्र बन गई है और नमक की गुड़िया अब एक अलग वास्तु नहीं है। नमक की गुडिया ’कोई भी’ है और समुंद्र ’आत्मा’ है, जो विभाजन अथवा दूरी को समाप्त कर एकता लाता है।

नमक की गुड़िया हमारे अहंकार (अहम–कर्ता; मैं करता हूं) के समान है, जो हमेशा हमें अपनी संपत्ति, विचारों और कार्यों के बूते हमे वास्तविकता से अलग रखने की कोशिश करती है। अनिवार्य रूप से कोई भी व्यक्ति ‘आम’ नहीं रहना चाहता है।

लेकिन असली यात्रा एक होने की है और ऐसा तभी होता है जब नमक की गुड़िया की तरह अहंकार समाप्त नहीं हो जाता है। इसका अर्थ है कि हमारे पास जो कुछ भी है – चीजें और विचार, दोनों को दांव पर लगाना होगा। यह वह यात्रा है जहाँ मंजिल उस क्षण मिलती है जब 'मैं' तथा 'मेरा' पहचान नहीं, सहज साधन बन कर रह जाते हैं।

सुख-दुख के ध्रुवों के शिखर पर हमें निर-अहंकार की झलक मिलती है। बोध के इन क्षणों में, हमें इस बात की झलक मिलती है कि हम क्या हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम क्या जानते हैं, हम क्या करते हैं और हमारे पास क्या है।


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