अर्जुन जानना चाहता था कि युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप (श्रीकृष्ण) किस प्रकार जाने जाते हैं (8.2) और कृष्ण उत्तर देते हैं, ‘‘जो पुरुष अंत काल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है - इसमें कुछ भी संशय नहीं है’’ (8.5)।
यह एक निश्चित आश्वासन है कि मृत्यु के समय यदि कोई उन्हें याद करता है तो भी वह उन्हें प्राप्त कर लेता है। लेकिन यह श्लोक यह आभास दिलाता है कि जीवन भर कोई बुराई कर सकता है, एक पथभ्रष्ट मूर्ख हो सकता है जो राक्षसों के मार्ग पर चलता है, एक पाखंडी या भ्रमित हो सकता है, सुख और इच्छाओं का पीछा कर सकता है; और अंत में परमात्मा को याद करना ही काफी होगा।
कृष्ण तुरंत इस धारणा को दूर करते हैं और कहते हैं, ‘‘यह मनुष्य अंत काल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है, क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है’’ (8.6)।
ध्यान देने योग्य है कि, न तो हम मृत्यु के समय के बारे में जानते हैं और न ही जीवन के बारे में कोई आश्वासन दे सकते हैं। मृत्यु का समय इतना अनिश्चित है कि उसके आधार पर परमात्मा को याद करने की कोई भी योजना विफल होने की संभावना है।
दूसरा, हमारी प्रवृत्ति परिवर्तन का विरोध करने की होती है। बुरे तरीके के जीवन से एक योगी के तरीके से जीवन जीने का संक्रमण एक बहुत बड़ी छलांग है जिसके लिए समय और प्रयास की आवश्यकता होती है। मृत्यु के क्षण में ऐसा कदापि नहीं हो सकता क्योंकि संपत्ति और लोगों के प्रति लगाव एक बार में नहीं छूटता।
तीसरा, जब कोई वृद्धावस्था के करीब पहुंच जाता है तो स्पष्टता की बजाय भ्रम की संभावना होती है और अंत तक प्रतीक्षा करने से कोई लाभ नहीं मिलता है।
मतलब यह है कि अनिश्चित अंत की प्रतीक्षा किए बिना जीवन में परमात्मा की ओर यात्रा जल्दी शुरू कर देनी चाहिए। यह जीवन के हर चरण में कार्य एवं जीवन के बीच संतुलन बनाए रखने जैसा है, न कि इस सोच से कि आज कड़ी मेहनत करके बाद के जीवन में आराम करने के बजाय।