जीवन ऊर्जा और पदार्थ का परस्पर संवाद है। यह सब ऊर्जा के साथ शुरू हुआ और फिर पदार्थ बाद में विभिन्न चरणों में बना। पदार्थ के अणुओं के संयोजन ने विभिन्न गुणों वाले विभिन्न प्रकार के यौगिकों को जन्म दिया जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक विविधता हुई। ऐसा ही एक संयोजन जीवन रूपी भौतिक शरीर है। यह पदार्थ की व्यवस्था से आने वाली ऊर्जा पर निर्भर होता है, जिसे भोजन के रूप में जाना जाता है। कुछ जीवन रूप (वृक्ष) सूर्य के प्रकाश से भोजन बनाते हैं और अन्य (जानवर) उनके द्वारा बनाए गए भोजन पर आश्रित होते हैं। संक्षेप में, जीवन ऊर्जा और पदार्थ का अंतर-खेल है।
यह सन्दर्भ हमें श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त कुछ शब्द जैसे ब्रह्म, कर्म, अध्यात्म, अधिभूतं, अधिदैवं और अधियज्ञ: (7.28और 7.29) को समझने में मदद करेगा। अर्जुन उनके बारे में जानना चाहता है (8.1 एवं 8.2) और श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘अधिभूत नाशवान प्रकृति है; अधिदैव पुरुष (पुर यानी शहर में रहने वाला) है और मैं यहां शरीर में रहने वाला अधियज्ञ हूं’’ (8.4)।
अधिभूतं पदार्थ या ‘रूप’ है जो समय के साथ नष्ट हो जाता है। अधिदैवं शरीर में मौजूद ‘निराकार’ ऊर्जा की तरह है, और अधियज्ञ पदार्थ और ऊर्जा के बीच अंतर-क्रिया है जो इस नाटक को एक निर्देशक की तरह संभव बनाता है, और श्रीकृष्ण वह निर्देशक हैं।
श्रीकृष्ण के अनुसार, ‘‘भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह कर्म कहा गया है’’ (भूत-भाव-उद्भव-करो विसर्ग:) (8.3)। इसका मतलब है कि हमें कुछ भी करने के लिए ऊर्जा की आवश्यक होती है और कर्म ऊर्जा का उपयोग है जो पदार्थ को जीवन प्रदान करता है। जीवन रूपों (पदार्थ) द्वारा उनके भरण-पोषण के लिए ऊर्जा को खींचना कर्म है। हम जो अनुभव करते हैं वह इस परस्पर क्रिया के प्रभाव हैं जिन्हें कर्मफल के रूप में जाना जाता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘स्वभाव’ अध्यात्म है (8.3)। उदाहरण के लिए, मौन हमारा स्वभाव है, जबकि भाषाएँ सीखी जाती हैं। स्वभाव ही रह जाता है जब हम उधार में ली हुई चीजों को छोड़ देते हैं। कामयाबी, कौशल या चीजों को प्राप्त करते समय, स्मरण रहे कि ये वस्तुएँ व उपलब्धियां हम पर हावी न हों और हम इन चीजों की तुलना से अपनी पहचान न बनाएँ।
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