
श्रीकृष्ण कहते हैं, योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वाले से भी योगी श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन, तुम योगी बनो (6.46)। सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमे लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है (6.47)।
योग का अर्थ एक मिलन है और योगी वह है जिसने स्वयं के साथ संयोजन प्राप्त कर लिया है। श्रीकृष्ण ने विभिन्न अवसरों पर योगी के विभिन्न पहलू बताए हैं।
द्वंद्वों को पार करके द्वंद्वातीत होना, गुणों को पार करके गुणातीत होना और यह जानकर कि गुण वास्तविक कर्ता हैं उसे सिर्फ एक साक्षी बनकर रहना; मित्र और शत्रु या स्तुति और आलोचना के प्रति समभाव रखना; यज्ञ की तरह निष्काम कर्म करना; कर्मफल के बारे में अपेक्षाएँ छोड़ देना आदि शामिल हैं। सबसे बढक़र, एक योगी स्वयं से संतुष्ट होता है।
तपस्वी वह है जो सख्त अनुशासन का पालन करता है, बलिदान करता है और कुछ महान प्राप्त करने का संकल्प लेता है। उनकी प्रशंसा की जाती है क्योंकि वे कुछ ऐसा करते हैं जो एक साधारण मानव सामान्य हालात में नहीं कर पाता है। उसमें कुछ पाने की इच्छा अभी भी बाकी है मगर वह एक योगी से कमतर है जिसने परमात्मा को देखने की इच्छा सहित सभी इच्छाओं को त्याग दिया है। योगी में इच्छाएं खो जाती हैं, जैसे नदियां समुद्र में प्रवेश करते ही अपना अस्तित्व खो देती हैं (2.70)।
शास्त्र ज्ञानी को किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में संदर्भित किया जाता है जो शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का इच्छुक हो। यहां तक कि इस गुण की भी प्रशंसा की जाती है क्योंकि वह एक सामान्य व्यक्ति से कुछ अधिक जानता है। मगर योगी सभी प्राणियों को स्वयं में महसूस करता है; सभी प्राणियों में स्वयं को महसूस करता है (6.29) और यह जानने के बाद कोई भी मोहित नहीं होगा (4.35)। इसके आगे जानने को कुछ नहीं बचा है।
कर्मी कर्मकांडों के लिए बाध्य होता है जबकि एक योगी यज्ञ की तरह निष्काम कर्म में भाग लेता है और कर्मबंधन में कभी नहीं बंधता है। अत: योगी कर्मी से श्रेष्ठ है।