श्रीकृष्ण कहते हैं, वे लोग जो इच्छा (काम) और क्रोध से मुक्त हैं, जिनका मन नियंत्रित है और जो आत्मज्ञानी हैं, वे इस दुनिया और परे दोनों में पूरी तरह से मुक्त हैं (5.26)। प्रश्न यह है कि कामना के रोग और क्रोध के पागलपन से मुक्त कैसे हों।
हर चक्रवात तूफान का एक शांत आंख या केंद्र होता है। इसी तरह, हमारी इच्छा और क्रोध के चक्रवात का भी हमारे भीतर एक इच्छाहीन और क्रोधहीन केंद्र है और यह उस केंद्र तक पहुंचने के बारे में है। इसके लिए ‘मैं’ को त्यागने के लिए साहस की आवश्यकता होती है क्योंकि ‘मैं’ इच्छा का एक मूल अंग है।
एक प्रभावी तकनीक यह है कि हम अतीत की स्थिति को फिर से दोहराएँ और देखें जहां हम इच्छा या क्रोध के चंगुल में थे। बेहतर जागरूकता के साथ इसे दोहराएँ कि, सभी प्राणियों में आत्मा एक है और अलग-अलग लोग एक वास्तविकता को अलग-अलग तरीकों से समझते हैं।
भारतीय परंपराएं जीवन को लीला अर्थात सिर्फ एक नाटक कहती हैं और इसमें गंभीरता से लेने लायक कुछ भी नहीं है। दूसरा तरीका यह है कि 7-10 दिनों तक ऐसे जीना है जैसे कि हम किसी नाटक का हिस्सा हैं और कुछ भी गंभीरता से नहीं लेकर उत्सव की मनोदशा में रहना है। इच्छा और क्रोध का अनुभव ऐसे करें जैसे नाटक में एक अभिनेता उन्हें उधार के रूप में लेता है।
एक बार जब कोई इस बात को समझ लेता है, तो वह धीरे-धीरे वर्तमान क्षण में भी इच्छा और क्रोध को छोडऩा सीख जाता है, जब वह सुख और दु:ख की संवेदी धारणाओं से प्रभावित होता है। यह अवस्था वर्तमान में परम स्वतंत्रता यानी मुक्ति के अलावा और कुछ भी नहीं है।
अंतिम चरण परमात्मा के प्रति समर्पण है और श्रीकृष्ण परमात्मा के रूप में आकर कहते हैं कि मुझे सभी यज्ञों और तपस्याओं के भोक्ता, सभी संसारों के सर्वोच्च भगवान और सभी जीवों के निस्वार्थ मित्र के रूप में महसूस करने के बाद, मेरा भक्त शांति प्राप्त करता है (5.29)।
यह गीता के पांचवें अध्याय को पूरा करता है जो ‘कर्म संन्यास योग’ या कर्मफल के त्याग के माध्यम से एकता प्राप्त करने के रूप में जाना जाता है।